कीर्ति सौरभ, जागृति रोहित एवं मनोज कुमार
खाद्य फसलों धान एवं गेहूं के बढ़ते उत्पादन के साथ ही, फसल अवशेषों के उत्पादन में भी काफी वृद्धि हुई है। भारत में, 500 मिलियन टन से अधिक कृषि अपशिष्ट हर साल उत्पादित किए जाते हैं । खाद्यान फसलों के अवशेष जैसे चावल, गेहूं, मक्का, बाजरा आदि का योगदान कुल फसल अवशेष उत्पादन का 70% है । जिसमें धान द्वारा 34% एवं गेहूं द्वारा 22% है । भारत में अतिरिक्त अवशेष (कुल उत्पादित फसल अवशेष- विभिन्न प्रयोजनों में प्रयोग की गई मात्रा) उत्पादन में अनाज वाले फसलों का सर्वाधिक योगदान है । अन्य उच्च अतिरिक्त अवशेष उत्पादक फसलें फाइबर, तिलहन, दलहन और गन्ना हैं (चित्र संख्या 1)। किसानों द्वारा अतिरिक्त फसल अवशेषों को आमतौर पर खेतों में ही जला दिया जाता है (चित्र संख्या 2)। एक शोध के अनुसार यह पाया गया है कि फसल अवशेषों को जलाने से करीबन 149.24 MT कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), > 9 MT कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), 0.25 MT सल्फर ऑक्साइडस (SOX), 1.28 MT पार्टिकुलेट मैटर (PM) एवं 0.07 MT ब्लैक कार्बन का उत्सर्जन होता है । जिसका सीधा असर पर्यावरण को प्रदूषित करने में पड़ता है एवं जो हिमालय ग्लेशियरों के पिघलने के लिए भी जिम्मेदार है । फसल अवशेष पोषक तत्वों एवं कार्बनिक पदार्थ का प्राथमिक एवं अच्छा स्रोत है । जिसे हम खाद में परिवर्तित करके मृदा में वापस भेज सकते हैं । एक शोध के अनुसार यह देखा गया है कि 1 टन पराली जलाने से हमें 5.5 किलोग्राम नाइट्रोजन, 2.3 किलोग्राम फास्फोरस, 25 किलोग्राम पोटाश तथा > 1 किलोग्राम सल्फर के साथ जैविक कार्बन का भी नुकसान होता है । पराली जलाने से उत्सर्जित ऊष्मा से मृदा के ऊपरी परत का तापमान 33.8 से 42.2 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है जिससे कि मृदा में उपस्थित लाभकारी बैक्टीरिया एवं जीवाणुओ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । साथ ही यह मानव स्वास्थ्य पर भी बुरा असर डालता है ।
पिछले कुछ सालों से भारत के उत्तरी राज्यों में सर्दियों की शुरुआत के साथ ही वायु प्रदूषण में काफी बढ़ोतरी देखने को मिल रही है । जिसकी वजह दिल्ली से सटे राज्य पंजाब एवं हरियाणा में पराली जलाए जाने की घटना को बताया जाता है । दिल्ली में होने वाले वायु प्रदूषण में 40% की हिस्सेदारी सिर्फ पराली जलाने की वजह से है । वायु गुणवत्ता का मानक एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) को माना जाता है । जिसमें 0 और 50 के बीच के वैल्यू को ‘अच्छा’, 50 और 100 के बीच को ‘संतोषजनक’, 101 और 200 के बीच को ‘मध्यम’, 201 और 300 के बीच को ‘खराब’, 301 और 400 के बीच को ‘बेहद खराब’ और 401 से 500 के बीच को ‘गंभीर’ माना जाता है । सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड (CPCB) के अनुसार पिछले वर्ष दिल्ली में एक्यूआई की वैल्यू 484 रिकॉर्ड की गई जो कि बेहद गंभीर श्रेणी में आता है ।
इस प्रकार पराली जलाने से ना सिर्फ खेतों को नुकसान है बल्कि देश को होने वाला आर्थिक नुकसान भी बहुत बड़ा है । एक रिपोर्ट के अनुसार हर साल देश को करीब 2 लाख करोड़ का नुकसान होता है । यह नुकसान स्वास्थ्य, मिट्टी और पराली को मिलाकर है । अतः जैव अपघटन तकनीक को फसल अपशिष्ट के जलने से होने वाले वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए एक लागत प्रभावी तरीका माना जा सकता है ।
पूसा डीकम्पोजर: यह लिग्नोसेल्युलोलिटिक कवक संघ का एक कम्पोस्ट कल्चर हैं जिसे भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के सूक्ष्मजीव विज्ञान संभाग द्वारा विकसित किया गया हैं। इससे फसल अवशेषों का तीव्र गति से जैव विघटन अर्थात् रूपांतरण एवं परिपक्व खाद बनाया जा सकता हैं। इस कम्पोस्ट कल्चर (टीका) की मदद से कम्पोस्ट बनाने की प्रक्रिया तेज होती है और उच्च गुणवत्ता वाली कम्पोस्ट से मृदा में पोषक तत्वों का सुधार होता है और सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कम्पोस्ट को जैविक खाद की उपमा प्रदान की गयी है (चित्र संख्या 3)।
कम्पोस्ट बनाने की सरल पिट या गड्ढा विधि
DR PRAMOD KUMAR SHARMA
VERY GOOD ARTICLE