देशी तरीके से नीलगाय से फसलों की सुरक्षा

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देशी तरीके से नीलगाय से फसलों की सुरक्षा

Indigenous ways of Crop protection from Blue bull 

अनिल कुमार सिंह, प्रेम कुमार सुंदरम एवं कीर्ति सौरभ

 

चित्र 1: खेत मे स्वछंद विचरण करता हुआ नीलगाय का झुण्ड

कृषि एवं बागवानी फसलों पर नीलगाय का आक्रमण दिन प्रति दिन बढ़ता ही जा रहा है। पहले नीलगाय यदा-कदा अपने प्राकृतिक वातावरण से भूलवश भटक कर ग्रामीण परिवेश में आ जाती थीं। परन्तु अब ये प्रायः दिखाई पड़ने लगी हैं नीलगाय मूलतः रात्रिचर प्राणी हैं, और फसलों पर इनका आक्रमण संध्या या तड़के भोर मे होता था, परन्तु अब प्राकृतिक जंगलों में तेजी से कमी होने के कारण नीलगायों का दिन में भी दिखना बहुत आम बात हो गयी है। हालत यह है कि नीलगाय के दर्शन कहीं भी एवं कभी भी हो जाते हैं। नीलगाय का आक्रमण फसल को किसी भी अवस्था में तहस-नहस करने की क्षमता रखता है। जिन क्षेत्रों मे नीलगाय का प्रकोप होता है वहाँ पर जरा सी लपरवाही होने पर सारी मेहनत पर पानी फिर जाता हैं, घ्यान देने योग्य बात यह है कि नीलगाय का आतंक नित नये-नये कृषि क्षेत्रों में बढता ही जा रहा है। चित्र 1 में नीलगाय खेत में स्वछंद विचरण करती हुई दीख रही हैं। यहाँ कृषि एवं बागवानी को नीलगाय आक्रमण से बचाव के उपाय पर चर्चा की गयी है।

नीलगाय के प्राकृतिक आवास की सुरक्षाः

नीलगाय प्राकृतिक तौर पर प्रायः चारागाह या कृषि आयोग्य भूमि एवं विरले वनों में पाये जाते थे, परन्तु विकास का अन्धानुकरण से चारागाह वन एवं आयोग्य भूमि दिन – दूने एवं रात चौगुने रफ्तार से विलुप्त होते जा रहे हैं, जिससे विवश हो कर नीलगाय गावों एवं शहरों की तरफ पलायन करने लगी हैं। यदि हम थोड़ा सा सचेत हो जायेँ और उनके प्राकृतिक आवास की सुरक्षा करके  उनके प्राकृतिक आवास उसी तरह प्रदान कर दें, तो उनका गाँवो एवं मानव बस्ती की आ¢र पलायन रुक जायेगा, और हमारी फसल नीलगाय के प्रकोप से बच जायेगी। साथ ही साथ इस प्रजाति को संरक्षण भी मिल जायेगा। यह एक सशक्त तरीका है, जिसमें बहुत सारा समय पैसा एवं संयम की जरुरत होगी अतः इस विधि का प्रयोग निहायत ही जरुरी है। इसमें साथ ही साथ अन्य साधनों का प्रयोग उद्देश्य की पूर्ति मे गति प्रदान करता है।

कृषि प्रक्षेत्र की चारदीवारीः

नीलगाय एक बहुत ही मजबूत फुर्तीली एवं तेज दौड़ने वाला चौपाया है। अतः फसल को बचाने के लिए सबसे अच्छा तरीका कृषि प्रक्षेत्र की चारदीवारी करना है। दीवारों की ऊँचाई कम से कम 7-8 फीट अवश्य ही रखेँ, क्योंकि यह जानवर 5-6 फीट की ऊँचाई बड़े ही आराम से लाँघ जाता है। यह तरीका थोड़ा खर्चीला हैं, इसलिए सभी किसान भाई इसे अपनाने में हिचकिचाते हैं। परन्तु घ्यान देने योग्य बात यह है कि इसमें सिर्फ एक बार ही निवेश करना पड़ता है, और फसलों को नीलगाय एवं अन्य आवारा जानवरों से दीर्घकालीन सुरक्षा मिल जाती है तथा उत्पादकता बढ़ाने मे कारगर होती है। यदि बिजली की व्यवस्था हो तो 220 वोल्ट का धारा प्रवाह करने से नीलगाय आवारा पशु एवं अन्य जगंली जानवरों को भी झटका लगता है। परिणामस्वरुप नीलगाय एवं अन्य जंगली पशु दुबारा उस प्रक्षेत्र पर नहीं आते हैं।

फसलों की पहरेदारीः

 फसल प्रक्षेत्र की चारदीवारी कराने में किसान भाई यदि किसी कारणवश असमर्थ हों तो वे जंगली फसलों की सुरक्षा स्वयं ही करें। घ्यान देने योग्य बात यह है कि नीलगाय का आक्रमण झुण्डों में एवं तडके सुबह या शाम को ही होता है। इस लिए फसल सुरक्षा की दृष्टि से तड़के सुबह तीन बजे से सूरज निकलने तक एवं शाम में सूरज डूबने के बाद एवं चाँदनी फैलने तक का समय बहुत ही महत्वपूर्ण है। नीलगाय के प्रकृति की विवेचना करने से यह ज्ञात होता है कि कृष्ण पक्ष में जब रातें ज्यादा काली होती हैं, तब इनका कहर अपेक्षाकृत थोड़ा ज्यादा ही हो जाता है, इसलिए इस समय खेतों की विशेष निगरानी की आवश्यकता होती है।

 प्रशिक्षित कुत्तों को रखवाली में लगानाः

जहाँ पर नीलगाय का आतंक प्राय: होता रहता है, वहाँ पर मानव द्वारा पहरेदारी में जरा सी चूक पूरे फसलावधि में की गयी मेहनत पर पानी फेर सकती है। अतः इस समस्या से बचने हेतु सबसे उत्तम तरीका प्रशिक्षण प्राप्त कुत्तों को रखवाली में लगाना है। ये कुत्ते प्रशिक्षण के बाद रखवाली के लिए प्रयोग किए जाते हैं एवं नीलगाय व आवारा पशु तथा अन्य जगंली जानवरों की जरा ही आहट पाते ही भौंकने लगते हैं, जिससे ये जानवरों का झुण्ड कुत्तों के शोर को सुन कर खुद भाग जाता है या किसान उन्हें खदेड कर प्रक्षेत्र से दूर कर देते हैं।

नीलगायों का जैविक रोकथाम:

नीलगाय के आतंक से निजात पाने के लिए जैविक तरीका भी अपनाया जा सकता है। इस विधि में सारे नरों को पकड़ कर उनका बांधियाकरण रसायन के प्रयोग से प्राकृतिक या शल्य बिधि द्वारा किया जा सकता है। अगर जरुरत पड़े तो मादाओं को भी बाझ बना कर उनकी जनसंख्या को एक निश्चित सीमा में रखा जा सकता हैं। ए¢सा करने से कृषि को नीलगाय के आतंक से ही नहीं बचाया जा सकता है, बल्कि नीलगाय को भी पूर्णतया विलुप्त होने से बचाया जा सकता है। अत्याधिक आखेट के कारण बांग्लादेश से इस चौपाये का तो पूर्णतयः सफाया ही हो चुका है।

नीलगायों को उनके मूल परिवेश में भेजनाः

नीलगायों के आतंक से फसलों को बचाने का एक सुगम उपाय यह भी है कि सभी जानवरों को पकड़ कर दूर कहीं प्राकृतिक आवास में जैसे कि किसी जगंल या प्राकृतिक चारागाह मे छोड़ आयें, ऐसा करने से नीलगायों को अपना नैसर्गिक आवास एवं आहार दोनों मिल जाते हैं एवं फसलों को भी नुकसान नहीं पहुँचता है। इससे फसल एवं नीलगाय दोनों को संरक्षण मिलता है।

नीलगायों का बध

     नीलगायों का आतंक यदि सारी हदें पार कर जाये, तो उनको उनकी उचित सँख्या को बरकरार रखते हुऐ, (एक नर पर 8 से 10 मादा प्रति पाँच वर्ग किलो मीटर) शेष सभी नील गायों का बध करना ठीक हो सकता है। परन्तु इस प्रक्रिया को अपनाने से पहले संबन्धित आधिकारी से आवश्यक प्रमाण पत्र अवश्य ही प्राप्त कर लें। क्योंकि नीलगाय को भी गाय जैसा संरक्षण भारत देश में प्राप्त है।

नीलगायों को मानव निर्मित चारागाह मे छोडनाः

     नीलगायों को पकड़ कर उनके निवास स्थान यथा जगंल एवं चारागाह आदि में छोड़ना यदि सभंव ना हो तो मानव निर्मित चारागाहो एवंम, बाडा आदि में डाल देना चाहिए जो कि पहले से ही घेऱाबन्दी करके रखा गया हो ताकि नीलगाय उस घेरे या चारागाह से वापस दुबारा कृषि क्षेत्रों एवं ग्रामीण क्षेत्रों में भ्रमण न करें एवं फलस्वरुप नुकसान भी न कर सके।

पटाखे एवं आग जलानाः

अनुभव में यह भी आया है कि नीलगायों का आक्रमण प्रक्षेत्र खेतों में कृष्ण पक्ष के दिनों मे ज्यादा होता है, जबकि शुक्ल पक्ष के समय थोड़ी राहत रहती है। अतः जैसे ही नीलगायों केा झुण्ड या इक्का – दुक्का ही नजर आये तो, तुरन्त ही मशाल जलाकर उन्हें डरायेँ, विशेषकर शाम या रात के समय सूरज छिपने के बाद एवं निकलने से पहले ऐसा करने से, ये जानवर भयभीत हो जाते हैं, और डर कर उस क्षेत्र मे घूमना बन्द कर देते हैं। जैसे ही यह चौपाया दुबारा दिखाई पड़े विशेषकर झुण्डो में तब पटाखे जलाने पर यह जानवर डर कर भाग जाते हैं, और दुबारा उस क्षेत्र में काफी दिनों तक दिखाई नहीं पड़ते हैं।

समाजिक जागरुकता क्षेत्र मे नीलगाय समिति

नीलगाय का प्रकोप सीमित क्षेत्र में नहीं होता है, बल्कि इसके आक्रमण से हजारों हेक्टेयर की फसल को क्षति पहॅुचती है। इनके आक्रमण से एक साथ कई गाँव चपेट मे आ जाते हैं। अतः नीलगाय के विषय में जानकारी रखना, सबको जागरुक बनाना एवं नीलगाय समिति का गठन एक मील का पत्थर साबित हो सकता है। क्योंकि कहावत भी है कि जानकारी से ही बचाव सम्भव है एवं बचाव में ही निदान है।

देशी तकनीक को भी आजमायेँ एवं सुरक्षा पायें

मानव का पुतला बनाकर खेतों मे खड़ा करना

खेतों मे किसान भाई उचित अन्तराल पर बाँस की फट्टियों या लकडियों के सहारे से पुआल या घासफूस की सहायता से मानव पुतला बनाकर उसे पुराना कपड़ा पहना दें एवं मिट्टी का खराब घड़ा टांग दें, ताकि देखने में बिल्कुल मानव जैसा ही लगे, जिसे देखकर नीलगाय को मनुष्य की मौजूदगी का आभास होगा एवं खेत से भाग खड़ी होगी। ज्ञात हो कि नीलगाय की देखने एवं सुनने की क्षमता तो ठीक होती है, परन्तु उनके सूंघने की क्षमता उतनी अच्छी नहीं होती है। और इस विधि में नीलगाय के इसी कमजोरी का फायदा उठाया जाता हैं। नीलगाय मनुष्यों को देखकर ही दूर भाग जाते हैं और यही कारण है कि यह  पहले दिन में एवं ग्रामीण क्षेत्रों में कम ही नजर आते थे।

गेंदा के पौधे मेड़ पर रोपनाः

गेंदा के पौधे भी रात मे खाल या कपड़े लपेटे मानव आकृति की तरह ही दिखाई पड़ते हैं और उसके फूल मानव का भ्रम पैदा करते हैं। जिसके कारण नीलगाय उस खेत में भ्रमण नही करती हैं। अतः मेड़ पर उचित अन्तराल पे गेंदा का रोपड़ दलहन एव तिलहन की रबी फसलों में विशेष उपयोगी देखा गया है। गेंदा के फूल में कोई विशेष सुगन्ध नहीं होती है और न ही इस जानवर में तीव्र ध्राण क्षमता ही होती है। इन दोनो विशेषताओं के कारण ही यह विधि कारगर होती है। इस गेंदा के पौधे 4-5 फीट लम्बे अवश्य हों, साथ ही साथ स्वस्थ भी हों ऐसा होने पर पैाधे मानव जैसा ही लगते हैं।

नीलगाय के गोबर के घोल का फसलों पर छिड़कावः

अनुभव में आया है कि जिन पौधों पर नीलगाय का गोबर लगा होता है, उनपर वो दुबारा विचरण नही करती हैं। इसी  तथ्य को ध्यान में रख कर एक परीक्षण किया गया, उनके ही गोबर को घोल कर फसलों पर छिड़काव किया गया जिसका प्रभाव 10-15 दिनों तक देखा गया। अतः 10-15 दिनों के अन्तराल पर नीलगाय के गोबर के घोल का छिड़काव करें तो फसलो को नुकसान से बचाया जा सकता है।

 जावा सिट्रोनेला एवं पाल्मा रोजा का प्रयोग:

इसका प्रयोग फसल के चारों तरफ बाड़ के रूप में करते हैं। नीलगाय इसकी सुगंध से दूर भागते हैं, क्योंकि उनको इसकी गंध अच्छी नहीं लगती है। गलती से अगर ये इनके पत्तों को खाने का प्रयास करे तो उसके मुँह में धारदार पत्तियों के कारण घाव बन जाते हैं, और वो दुबारा इस फसल की ओर मुड़कर भी नहीं देखते हैं|

सड़े अण्डे के घोल का प्रयोग:

अनुभव में आया है कि वो अण्डे जो सड़ जाते हैं और खाने के योग्य नहीं रह जाते हैं, उन अण्डों का प्रयोग हम नीलगाय से फसलों को बचाने के लिए कर सकते हैं। इन अण्डों का प्रयोग घोल बनाकर खडी फसलों पर करें। एक छिड़काव से दूसरे छिड़काव के बीच 10-15 दिन का अन्तर रखें। सड़े अण्डे के बदबू के कारण नीलगाय फसलों के पास आना पसंद नहीं करती हैं, और फसल नीलगाय के प्रकोप से बच जाती है।

रसायन का उपयोग

नीलमणि नामक रसायन का उपयोग द्रव के रूप में किया जाता है। इसकी पैकिंग 50 मिली लीटर 100 मिली लीटर 200 मिली लीटर एवं 500 मिली लीटर में होती है। रफूचक्कर नामक रसायन का प्रयोग यह धूल के रूप में  होता है, एक पैकेट 25 किग्रा की होती है। इसका प्रयोग खड़ी फसल में करते है। इस रसायन का असर 10-15 दिनों तक बना रहता हैं।

नीलगाय का खेती के कार्यों में उपयोग

इतिहास गवाह है कि प्रशिक्षिण के माध्यम से विभिन्न प्रकार के जंगली जानवरों को मानव ने अपने बस में करके उनसे मनचाहा काम लिया है। इस कड़ी में नीलगाय अपवाद नहीं हो सकता हैं। हम नीलगायों को प्रशिक्षिण देकर उनकी ऊर्जा कृषि एवं अन्य उपयोग में ला सकते हैं। इनका प्रयोग हम खेतों की जुताई में एवं ढुलाई में कर सकते हैं। यदि हम ऐसा करने में सफल रहे तो नीलगाय का हम सदुपयोग कर सकेगें। इसके लिए इस चौपाये की धैर्य पूर्वक प्रशिक्षण की नितांत आवश्यकता है। इस चौपाये के प्रशिक्षण के मामले में मलेशिया में सफल प्रयोग हो चुका है| मलेशिया में इस जानवर का प्रयोग खेती के विभिन्न कार्यों में सफलता पूर्वक लिया जा रहा है।

नीलगा की उपयोगिता

नीलगाय मे सारी बुराइयां ही नही हैं, अपितु इनमें कुछ अच्छाइयां भी हैं| इसकी प्रमुख अच्छाई इसके द्वारा प्रदत उच्च गुणवतायुक्त मांस है, जिसके कारण चोरी चुपके इसका आखेट होता चला आ रहा है। भारतवर्ष के कुछ प्रान्तों के कुछ क्षे़त्रो में ये प्राणी विलुप्त प्रायः हो गया है। बांग्लादेश में तो अब ये जानवर मात्र चिड़ियाघरों में ही शोभा बढ़ा रहे हैं।

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