दुधारु पशुओं में बबेसियोसिस रोग

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दुधारु पशुओं में बबेसियोसिस रोग

डाॅ.अजीत कुमार, डाॅ. संजय कुमार एवं डाॅ. रजनी कुमारी

बबेसियोसिस रोग दुधारू पशुओं गाय, बकरी, भेड़, भैंस, आदि की खून की लाल रक्त कोषिकाओं में बबेसिया प्रोटोजोआ के मौजूद रहने के कारण होता है, जिसके फलस्वरुप दुधारू पशुओं का दुग्ध उत्पादन तथा प्रजनन क्षमता का अत्याधिक ह्यास होने के अलावे समुचित उपचार न होने पर प्रभावित पशु की मृत्यु भी हो जाती है। घातक जीवाणु एवं विषाणु-जनित रोगों से बचाव हेतु पशुपालक समयानुसार पशुओं को टीके लगवा सकते हैं, जबकि बबेसियोसिस रोग से बचाव के कारगर टीके अभी तक उपलब्ध नहीं होने के कारण, इस रोग के होने पर दुधारू पशुओं की उत्पादक-क्षमता कुप्रभावित होने के चलते पशुपालकों को अन्तोतगत्वा आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। 1999 में प्रकाशित एक रिर्पोट के अनुसार बबेसियोसिस रोग के कारण अनुमानित वार्षिक नुकसान 57.2 मिलियन अमेरिकी डाॅलर देखा गया है। अतः दुधारू पशुओ में होने वाले घातक बबेसियोसिस रोग, उसके लक्षणों एवं रोकथाम की समुचित जानकारी रख कर पशुपालक इस रोग से होने वाली आर्थिक क्षति को बहुत हद तक कम कर सकते हैं ।

बबेसिया प्रोटोजोआ परजीवी का आकार नासपाती  के आकार का होता है एवं अधिकतर जोड़ें में पशुओं के खून के लाल रक्त कोषिकाओं में मौजूद रहते हैं । यह रोग सामान्यतः अधिक उम्र के ओं में पाया जाता है, क्योंकि कम उम्र के पशुओं में यह रोग, माँ के खीस (कोलेस्ट्रम) द्धारा रोग-प्र्रतिरोधक क्षमता ग्रहण कर लेने के कारण प्रायः नहीं होता है । गाय में इस रोग का प्रकोप भैंस की अपेक्षा अधिक होता हैं । बबेसियोसिस को रेड वाटर, कैटल किलनी ज्वर, लाल पेषाब रोग, टेक्सास फीवर आदि नामों से भी जाना जाता है ।

लाल रक्त कोषिकाओं में मौजूद बबेसिया प्रोटोजोआ

रोग का प्रसार: इस रोग का फैलाव गाय-भैंस में खून चूसने वाले बूफिलस माइक्रोप्लस नामक किलनी या ज्प्ब्ज्ञ (चमोकन) द्वारा होता है । जब यह किलनी बबेसिया प्रोटोजोआ से ग्रसित पशु का खून चूसता है, तब यह परजीवी किलनी मे पहुँच जाता है। फिर इस संक्रमित किलनी की अवस्थाओं द्वारा स्वस्थ पशु के खून चूसने के समय यह बबेसिया परजीवी उस पशु के खून में पहुँच जाता है और पशुओं में बबेसियोसिस रोग हो जाता है।

रोग का लक्षण: इस रोग से ग्रसित पशु में सर्वप्रथम तीव्र बुखार, भूख में कमी, खुन के लाल रक्त कोषिकाआ के टूटने के कारण इसमें उपस्थित हीमोग्लोबिन पशु के मूत्र के साथ बाहर निकलना षुरू हो जाता है और पशु के मूत्र का रंग काॅफी के रंग जैसा लाल हो जाता है। पशु के शरीर में खुन की कमी (एनीमिया) हो जाती है । इसके अलावा, रोग-ग्रस्त पशु में कमजोरी हो जाना, जुगाली (पागुर) करना बंद कर देना, दुध देने वाले पशु के दुध-उत्पादन में अत्याधिक कमी हो जाना, पतला दस्त आदि लक्षण प्रकट होते हैं। लक्षण प्रकट होने पर यदि इलाज में देर की गई तो बीमार पशु मृत्यु का शिकार हो जाती है ।

रोग की पहचान: इस रोग की पहचान प्रमुख लक्षणों जैसे- तीव्र बुखार, हीमोग्लोबिन मुत्रता (पेषाब का रंग काॅफी के रंग जैसा लाल हो जाना) केे आधार पर कर सकते है। पशु के मुत्रनलिका में संक्रमण एवं कुछ अन्य रोगों में के होने पर हीमेचुरिया (लाल रक्त कोषिकाओं का मुत्र के साथ आना) की अवस्था ग्रसित पशु में होता है जिसके कारण भी मुत्र का रंग काॅफी के रंग जैसा हो जाता है । हीमोग्लोबिन मुत्रता एवं हीमेचुरिया के अवस्था को पशुपालक आसानी से अन्तर कर सकते हैं । यदि पशु के पेशाब का रंग काॅफी के रंग जैसा लाल हो तो पशुपालक पशु के पेशाब को एक परखनली में लेकर 5 मिनट के लिए मुत्रयुक्त परखनली खड़ा करके छोड़ दें, यदि 5 मिनट के बाद परखनली में मौजूद मुत्र का रंग साफ हो जाय तो समझना चाहिए कि हीमेचुरिया की अवस्था है जो बबेसियोसिस रोग नही हीेने को दर्शाता है, पर यदि 5 मिनट के बाद परखनली में मौजूद मुत्र का रंग पहले के जैसा लाल बना हुआ है तो समझना चाहिए कि हीमोग्लोबिन मुत्रता की अवस्था है एवं साथ में पशु को बुखार भी हो तो यह बबेसियोसिस रोग को दर्शाता  है। रोग-ग्रस्त पशु के रक्त के आलेप को रंगकर सूक्ष्मदर्शी की सहायता से देखने पर नासपाती के आकार का बबेसिया परजीवी जोड़े में लाल रक्त कोषिकाआ में दिखाई पड़ता है । बबेसिया संक्रमित लाल रक्त कोषिकाओं का आकार भी बढ़ जाता है । संक्रमित पशु के शरीर पर किलनी (चमोकन) की अधिक संख्या भी मिल सकता है ।

रोग का उपचार: बबेसियोसिस रोग के इलाज हेतु डाइमीनाजीन डाइएसीचुरेट औषधि का 0.8-1.6 ग्राम प्रति 100 किलोग्राम शरीर भार कर दर से अंतःमाँसपेषी में पशुचिकित्सक की देख रेख में देना चाहिए । इमिडोकारब दवा का 2 मिलिग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम शरीर भार पर त्वचा में लगाकर पर भी बबेसिया प्रोटोजोआ को संक्रमित पशु के खून से पूरी तरह हटा सकते है । इसके अलावे लिवर-टाॅनिक, रक्तवर्धक औषधि और डेक्सट्रोज सैलाइन का प्रयोग पशु चिकित्सक की सलाह के अनुसार करना चाहिए ।

बबेसियोसिस रोग की रोकथाम:
(क) बबेसियोसिस रोग पैदा करने वाला प्रोटोजोआ परजीवी एक पशु से खून से दूसरे पशु के खून तक किलनी ( चमोकन ) द्धारा पहुँचते है । अतः इस घातक एवं आर्थिक रूप से हानिकारक रक्त-परजीवी जनित रोग के रोकथाम, किलनी (चमोकन) को मारने या दूर भगाने से बहुत हद तक संभव है । पशुपालक को चाहिए कि पशुओं के शरीर पर से चमोकन को हाथ से चुनकर आग में जला दें । इस तरह सप्ताह में एक बार भी करने से पशुओं को चमोकन के प्रकोप से बचाया जा सकता है । पर यदि, पशु के शरीर पर चमोकन इतना ज्यादा हो कि हाथों से चुनना मुश्किल हो तो उस हालत में इस रोग से बचाव के लिए चमोकन के नियंत्रण हेतु कीटनाषक औषधियों साइपरमेथ्रिन/डेल्टामेथ्रिन औषधि का 2 मि.ली. 1 लिटर पानी में घोल बनाकर सुती कपड़ा की सहायता से पशु के शरीर पर बाल के अन्दर मुँह एवं आँख को छोड़कर लगायें एवं साथ-ही-साथ पशुशाला में भी इन कीटनाषक औषधि का समय-समय पर छिड़काव करते रहना चाहिए । यदि चमोकन इस औषधि से भी कम नही हो तो फ्लूमेथरीन नामक कीटनाषक औषधी गर्दन से पूँछ तक गिरायें या आइवरमेक्टिन की सुई का 1 मि.ली. प्रति 50 किलोग्राम शारीरिक भार पर त्वचा में लगाना चाहिए ।

(ख) पशुओं के चरने के स्थान यानि चारागाह का समय-समय पर जुताई कर खर-पतवार मे आग लगा देनी चाहिए, इससे किलनी (चमोकन) की अवस्यक अवस्था समाप्त हो जाती है । चमोकन के प्रजनन यानि संख्या को कम करने के लिए पशु आवास के आस-पास गन्दा पानी, घास एवं कुड़ा-करकट को जमा नही होने दें ।

(ग) पशुशाला की दीवार /फर्श पर दरार्रें नही होनी चाहिए क्योंकि किलनी ( चमोकन ) या उसकी अवस्थायें इसमें छुपी रहती है । पशुशाला को चूने से रंगाई कराते रहना चाहिए ।

(घ) पशुओं के शल्य चिकित्सा तथा टीकाकरण में दूषित सूई एवं औजारों का उपयोग कदापि नहीं करना चाहिए।

(ड़) पशुपालकों को अपने दुधारू पशुओं के खून की जाँच प्रत्येक तीन महीने में कराते रहने से रक्त परजीवी का पता चल जाता है ।

पशुपालकों को सलाह है कि बबेसियोसिस बहुत ही खतरनाक एवं आर्थिक रूप हानिकारक रक्त परजीवी जनित रोग हैं । इस रोग के प्रकोप का कोई भी लक्षण किसान भाई अपने पशुओं में देखें तो तुरन्त अपने पास के पशुचिकित्सक से परामर्श लेकर उचित इलाज का प्रबंध करें । थेाड़ी सी देर या आलस्य से आपको काफी आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ सकता है ।

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Authors

  • डा ० अजीत कुमार

    सहायक प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष, परजीवी विज्ञान विभाग बिहार पशुचिकित्सा महाविद्यालय, पटना बिहार पशुविज्ञान विश्वविद्यालय, पटना-800014 (बिहार)

  • डा० संजय कुमार

    सहायक प्राध्यापक, पषु पोषण विभाग बिहार पशुचिकित्सा महाविद्यालय, पटना बिहार पशुविज्ञान विश्वविद्यालय, पटना-800014 (बिहार)

  • डा० रजनी कुमारी

    वैज्ञानिक आर.सी.ई.आर-आई.सी.ए.आर, पटना

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