सारांश
देश इस समय बड़े पैमाने पर पार्थेनियम (पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस एल.) संक्रमण से जूझ रहा है। यह उन्नीसवीं सदी में भारत में शुरू हुआ और देश के अधिकांश हिस्सों में फैल गया। इसने भारतीय महाद्वीपीय क्षेत्र के एक बड़े क्षेत्र पर आक्रमण किया है और रेलवे पटरियों के पास, खाली स्थानों पर, कृषि क्षेत्रों में, बगीचों में और जंगलों में बहुतायत में पाया जाता है। यह एक जलवायु प्रतिरोधी खरपतवार है और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जीवित रह सकती है। एक अध्ययन के अनुसार खरपतवार विभिन्न फसलों की उपज को 13 प्रतिशत से 36 प्रतिशत तक कम करके देश को भारी आर्थिक नुकसान पहुंचा सकते हैं। यह अनुमान लगाया गया है कि भारत के अठारह राज्यों में 10 प्रमुख खेतों की फसलों में अकेले खरपतवार के कारण लगभग 11 बिलियन अमेरिकी डॉलर का कुल आर्थिक नुकसान हुआ। इसके हानिकारक गुणों को कम करने के लिए पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस को नष्ट करने के प्रयास किए जा रहे हैं। पार्थेनियम की समस्याओं को नियंत्रित और कम करने के लिए कई तरीकों की आवश्यकता है, उनमें से कुछ पर यहां चर्चा की गई है।
परिचय
खरपतवार से विभिन्न फसलों में उत्पादन में कमी देखी गयी है जो कि अलग-अलग फसलों में 13-36 % तक पाई गयी है, एक और जहाँ प्रत्यारोपित धान की फसल में 13.8 % तक उत्पादन में कमी पारी गयी है तो मूंगफली में 35.8% तक (घरडे और साथी, 2018) तालिका 1. । गाजर घास एक खतरनाक खरपतवार है जिसे पार्थेनियम के नाम से जाना जाता है । यह भारत के अलग अलग प्रदेशों में अलग अलग नाम से भी जाना जाता है, जैसे-कांग्रेस घास, गाजर घास, सफेद टोपी, चटक चांदनी तथा गंधी बूटी इत्यादि । सर्वप्रथम सन् 1956 में उष्ण अमेरिका से भारत में आया तदुपरान्त यह खरपतवार हमारे देश के किसानों के लिए एक समस्या बना हुआ है और लगभग पुरे देश में फ़ैल गया है (ललिता और कुमार, 2018) । यह एकवर्षीय शाकीय पौधा है जो विभिन्न वातावरण में तेजी से उगकर फसलों के साथ साथ पशुओं तथा मनुष्यों के लिए एक गंभीर समस्या बना हुआ है । इसके पौधों की लंबाई 1.0 सेंटीमीटर से 1.5 मीटर तक होती है तथा यह बहुशाखीय पौधा है जो अपना जीवनचक्र करीब पांच से छह महीने में पूरा कर लेता है तथा इसके पत्ते गाजर के पत्ते जैसे होते हैं इसलिए इस घास को गाजरघास कहते हैं । प्रत्येक पौधा 5000 से 25,000 तक अत्यंत सूक्ष्म बीज पैदा करता है जो हवा, पानी तथा पशु पक्षियों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से पहुँच जाते हैं जो शीघ्र ही जमीन पर गिरने के बाद प्रकाश तथा नमी पाकर अंकुरित हो जाते हैं । गाजर घास एक ऐसा खरपतवार है जो हर प्रकार की जलवायु में उगने की क्षमता रखता है तथा किसी भी प्रकार की मृदा में फल फूल सकता है । इसकी बढ़वार पर मृदा की अम्लीयता या क्षारीयता का कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है ।
तालिका 1. खरपतवार से विभिन्न फसलों के उत्पादन में कमी की मात्रा
फसल | उत्पादन में कमी की मात्रा (%) |
प्रत्यारोपित धान | 13.8 |
गेहूं | 18.6 |
मक्का | 25.3 |
सोयाबीन | 31.4 |
मूंगफली | 35.8 |
सरसों | 21.4 |
मूंग | 30.8 |
(स्रोत : घरडे एट अल, 2018)
सामग्री और विधियाँ
गाजर घास का दुष्प्रभाव
अन्य खरपतवारों की तरह गाजर घास का पूर्ण विकसित पौधा अपने आस पास की फसलों के पौधों से जल,वायु तथा पोषक तत्वों के लिए प्रतिस्पर्धा करता है तथा पौधों को कमजोर कर देता है । इससे खाद्यान्न फसलों की पैदावार में कमी हो जाती है । इस खरपतवार की जड़ों से निकलने वाला घुलनशील वृद्धिरोधी रसायन फसलों की वृद्धि को रोक देता है । इसके अतिरिक्त गाजर घास के पौधों में एस्क्यूटरपिन लैक्टोन, फेरुलिक, कैफिइक अम्ल तथा कोरोपिलिन नामक विषैला पदार्थ पाया जाता है जो फसलों के अंकुरण को प्रभावित करते हैं । इसके परागकण पर-परागित फसलों के मादा जनन अंगों में एकत्रित हो जाते हैं जिससे उनकी संवेदनशीलता ख़त्म हो जाती है तथा बीज नहीं बन पाता है । दाल वाली फसलों में यह खरपतवार जड़ ग्रंथियों के विकास को भी प्रभावित करता है तथा नाइट्रोजन स्थिरीकरण करनेवाले जीवाणुओं की क्रियाशीलता को भी कम कर देता है । गाजर घास का मानव के स्वास्थय पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । इस खरपतवार के लगातार संपर्क में आने से मनुष्यों में डरमेटाइटिस, एक्जिमा, श्वसन समस्या, छींक, दमा, खाँसी, खुजली, एलर्जी, बुखार, तथा अन्य चर्म रोगों का प्रकोप होता है (मैशी और साथी, 1998) । प्राय: पशु इसके पौधे को नहीं खाते हैं क्योंकि इसमें एक बहुत ही ख़राब गन्ध आती है । लेकिन अगर गलती से पशु इसके पौधों को खा लेते हैं तो उनमें कई प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं एवं दुधारू पशुओं के दूध में कड़वाहट आने लगती है तथा धीरे-धीरे दूध की मात्रा कम होने लगती है। पशुओं द्वारा अधिक मात्रा में निषेचन लेने से इनकी मृत्यु भी हो सकती है इसके खाने से पशुओं के मुंह में घाव कोमा छाले या जीप का खेल जाना इत्यादि देखा गया है ।
परिणाम और चर्चा
गाजर घास का नियंत्रण एवं रोकथाम के उपाय
गाजर घास के समुचित नियंत्रण एवं रोकथाम के लिए एक समेकित, एकत्रित खरपतवार नियंत्रण की आवश्यकता होती है। इसकी रोकथाम के लिए यांत्रिक रासायनिक तथा जैविक विधियों का उपयोग किया जाता है ।
(क) निरोधी उपाय
(ख) रोकथाम के उपाय
(क) निरोधी उपाय: इसके अंतर्गत निम्नलिखित उपाय आते हैं:
(ख) रोकथाम के उपाय
निष्कर्ष
आज के समय जब भारत में खरपतवार से फसल उत्पादन में 13-36 % तक कमी हो रही है तो इनका नियंत्रण अति आवश्यक हो गया है। गाजर घास भी एक खतरनाक खरपतवार है इसका नियंत्रण भी किसान भाइयों को समय पर कर लेना चाहिए नहीं तो बीज की अधिकता के कारण और आसान फैलाव के कारण पुरे भारत वर्ष में एक अभिशाप के रूप में बदल सकता है। गाजर घास के नियंत्रण के उपायों को भी अपनाना होगा साथ ही साथ इसके फैलाव को भी रोकना होगा। इसके अन्य प्रयोगों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। इसके कठिन जलवायु परिवेश में भी उगने को लेकर अनुसंधान की आवश्यकता है कि क्यूँ ये खरपतवार अपने आपको विषम परिस्थितियों में भी ढाल पाता है। कुल मिलकर गाजर घास एक समस्या है और इसके त्वरित समाधान की आवश्यकता है।
सन्दर्भ सूची
घरडे वाई, सिंह पी के, दुबे आर पी और गुप्ता पी के.2018. भारत में खरपतवारों के कारण कृषि में उपज एवं आर्थिक हानि का आकलन. फसल सुरक्षा, 107: 12-18.
मैशी एआई, अली पीकेएस, चगताई एसए, खान जी.1998. ए प्रूविंग ऑफ पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस, एल. ब्रिट होमियोपैथ जे., 87:17–21.
ललिता और अशोक कुमार .2018. एक खरपतवार पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस (एल.) पर समीक्षा. आईजेसीआरआर, 10(17): 23-32.