बिहार में आर्सेनिक विषाक्तता का प्रभाव और उसका नियंत्रण
रवि कुमार, रश्मि रेखा कुमारी एवं पंकज कुमार
आर्सेनिक (As) एक गंधहीन और स्वादहीन उपधातू है जो जमीन के नीचे प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। यह रसायन-विज्ञान के पीरियोडिक टेबल में नाईट्रोजन (N), फास्फोरस (P), एंटीमनी (Sb) और विस्मथ (Bi) सहित ग्रुप VA का सदस्य है। इसका परमाणु क्रमांक 33 है और परमाणु भार (एटोमिक भार) 74.91 है।
प्रकृति में आर्सेनिक रवेदार (क्रिस्टेलाइन), पाउडर और एमोरफस या काँच जैसी अवस्था में पाये जाते है। यह सामान्यतः चट्टान, मिट्टी, पानी और वायु में काफी मात्रा में पाया जाता है। पानी में आर्सेनिक किस मात्रा में घुला हुआ है इसका पता आँखों से देखकर लगा पाना मुश्किल है क्योंकि दोनों ही परिस्थितियों में स्वाद और रंग और गंध में कोई अंतर नहीं आता है। गाँवों में खासकर ग्रामीणों की स्थिति तो पेय जल प्राप्त करने के लिए और भी कष्टदायक है क्योंकि उन्हें अकसर दूर-दूर तक चलकर पीने का पानी लाना पड़ता है। अगर यह पता लग भी जाये कि उसमें आर्सेनिक घुला है तो भी कुछ नहीं कर सकते। आम नागरिक उसे पीने के लिए मजबूर है। क्योंकि और कोई वैकल्पिक व्यवस्था भी नहीं है।
आर्सेंनिक के स्त्रोत :–
प्राकृतिक :- आर्सेनिक युक्त गाद से भूजल में आर्सेनिक का रिसाव, मिट्टी में आर्सेनिक का रिसना और घुलना।
मानव-जनित :- कृषि रसायन, दीमक रोधी जैसे-रसयायनिक तत्व, औद्योगिक स्त्रोत, खनिज संषोधन के अम्ल-अपषिष्ट का निस्तार, जैव-इंधन का जलना आदि ।
विज्ञान, चिकित्सा तथा तकनीकी क्षेत्र में आर्सेनिक विषाक्तता को लम्बे समय से जाना जाता रहा है। भारत में आर्सेनिक सबसे पहले पश्चिम बंगाल बेसिन क्षेत्र में सन् 1978 में रिपोर्ट किया गया तथा वर्ष 1983 में आर्सेनिक के विषैलेपन का जाँच सर्वप्रथम स्कूल ऑफ़ टोपिकल मेडिसीन तथा आलॅ इंडिया इंस्टीच्युट ऑफ़ हाईजीन तथा पब्लिक हेल्थ विभाग ने की है। यहाँ पर यह देखा गया कि वहाँ के लोग आर्सेनिक जनित डर्मेटाइटिस (त्वचा रोग) से प्रभावित हैं।
आर्सेनिक की समस्या अर्जेन्टिना, भारत (पश्चिम बंगाल एवं अन्य क्षेत्र), थाईलैंड, मैक्सिको, चीन (आंतरिक मंगोलिया), अमेरिका और बांग्लादेश जैसे देशों में पायी गई है।
आर्सेनिक देश में जल प्रदूषण की एक अलग और खतरनाक तस्वीर पेश कर रहा है। देश की राजधानी दिल्ली सहित पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, राजस्थान सहित देश के कुछ और प्रदेशों की भूजल संपदा पर आर्सेनिक अपने पैठ बना चुका है। आर्सेनिक की मात्रा डब्लु॰ एच॰ ओ॰ (WHO) के अनुज्ञेय सीमा (0.01 मिली ग्राम/लीटर) (10 पी.पी.बी.) से ज्यादा पायी गई है। बिहार में 38 जिलों में से 18 जिले आर्सेनिक से प्रभावित हैं। ये जिला हैं- पटना, भोजपुर, रोहतास, बाँका, बेगूसराय, बक्सर, दंरभंगा, कटिहार, खगड़ीया, लखिसराय, मुजफ्फरपुर, नालन्दा, पूर्णिया, समस्तीपुर, सारण, शेखपुरा, सिवान, वैशाली और पूर्वी चम्पारण है। बिहार में सबसे पहले आर्सेनिक 2002 में ओझापट्टी गाँव भोजपुर जिला में देखा गया। जाधवपुर विश्वविद्यालय (JU) द्वारा गंगा किनारे स्थित भोजपुर और बक्सर जिलों के 237 गाँवों का अध्ययन किया गया। जाँच में 202 गाँव आर्सेनिक की चपेट में पाये गए। पानी के जाँचे गए 9596 नमुनों में से आर्सेनिक की मात्रा स्वीकृत सीमा से अधिक थी।
हालिये महावीर कैंसर शोध संस्थान, पटना द्वारा बिहार के विभिन्न जिलों में 322 स्थानों के पानी के नमूनों एवं 120 लोगों के खून के नमूनों की भी जाँच की गई जिसमें आर्सेनिक की मात्रा तय मात्रा से बहुत ही ज्यादा मिला जो पशु एवं मानव शरीर को नुकसान पहुँचाता है। बिहार के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा बढ़ने के कारण यहाँ का पानी प्रति-दिन जहरीला होता जा रहा है। बिहार की राजधानी पटना के दानापुर व फुलवारीशरीफ क्षेत्रों के भूगर्भीय जलों में आर्सेनिक की अधिकता से प्रभावित भूजल के दैनिक प्रयोग (पेय जल के रूप में) के होने से विभिन्न प्रकार की बीमारी हो रही है। जैसे कैंसर, लीवर की बीमारी, पशुओं एवं मानव शरीर में चर्म रोग, बाल झड़ना इत्यादि। आर्सेनिक के कारण जानवरों एवं मानव शरीर को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है। यह लीवर, रक्त धमनियाँ, आँत तथा गर्भाशय इत्यादि को प्रभावित करता है। और इन्हीं अंगों में कैंसर लक्षण सबसे ज्यादा पाये गये है।
आर्सेनिक पशु एवं मानव शरीर को किस तरह प्रभावित करता है ?
पीने के पानी में मौजूद आर्सेनिक आँतों द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है, वहाँ से रक्त वाहिनियाँ इन्हें विभिन्न अंगों तक पहुँचाती है। शरीर में अवशोषित आर्सेनिक का मात्रा का पता खून, नाखून और बाल के नमूने से लगाया जाता है (चित्र 1)। इन नमूनों को एक विस्तृत प्रक्रिया के द्वारा गर्म प्लेट पर रख अम्लीय पाचन कराया जाता है (चित्र 2) । इसके बाद इसकी मात्र को atomic absorption spectrophotometer (AAS) से आंका जाता है । इसके लिए कुछ पहले से मानकों (As) का प्रयोग किया जाता है I अत्यधिक मात्रा में आर्सेनिकयुक्त पानी का सेवन करने से यह शरीर के अंदर जमा होने लगता है। आर्सेनिक पशु एवं मानव शरीर पर तरह-तरह के नकारात्मक असर छोड़ता है ।
आर्सेनिक एक प्रकार से शरीर में विष के तरह काम करता है। जो अपना एक प्रभाव दिखाता है। आर्सेनाईट (As-3) को आर्सेनिक का सबसे जहरीला स्वरूप माना जाता है। इसके कुछ प्रकार के विषाक्त है।
1. Acute toxicity (उग्र आविषालता) – वह विषैला प्रभाव है जो अल्प अवधि में ही किसी जीव को गम्भीर रूप से हानि पहुँचा सकता है और उसकी मृत्यु का कारण भी बन सकता है। इसके हानिकारक दुष्प्रभाव से जानवर और मनुष्य को हानि पहुँचता है।
इसके कुछ लक्षण निम्नवत हैं :-
उल्टी होना
पेट में दर्द होना
हृदय को नुकसान पहुँचना
यह किडनी (गुर्दा) को नुकसान करता है।
सँस लेने में तकलीफ होती है।
2. Sub-acute Toxicity (उप-तीव्र विषाक्त) – उप-तीव्र विषाक्त ऐसा विषाक्त है जो एक ही बार या बार-बार दिया जाता है जिसका अन्तराल 14 से 28 दिनों तक होता है।
इसके भी कुछ प्रमुख लक्षण हैः-
भूख नहीं लगना
अत्यधिक दस्त होना
उलटी होना
साँस लेने में दिक्कत आना
3. Chronic Toxicity (जीर्ण विषाक्त) – जीर्ण विषाक्त ऐसा विषाक्त है जो धीरे-धीरे और लम्बे समय तक रहता है और इसका प्रभाव पशु एवं मानव शरीर पर पड़ता हे।
इसके लक्षण हैं :-
कमजोर पड़ना
सुस्त पड़ जाना
भूख कम लगना
दस्त होना
गर्भ धरना में विलम्ब होना
दूध का उत्पाद घटना
खुर कमजोर पड़ना
आर्सेनिक हमारे पानी के साथ-साथ हमारे भोजन में भी आने लगा है। क्योंकि जो पानी हम पीने के लिए उपयोग करते हैं, वही पानी हम कृषि एवं सिंचाई में भी उपयोग में लाते हैं। जिससे हमारी फसल तो प्रभावित होता ही हैं साथ-साथ मिट्टी भी प्रभावित हो रहा है। ये हमारे स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है।
उपचार:
सबसे पहले विष-नाशक (antidote) देना अनिवार्य हैं। जिसके लिए निम्न में से किसी का भी प्रयोग किया जा सकता है I उसके बाद पशु को आर्सेनिक के स्रोत से अलग कर देना चाहिए और उन्हें शीघ्र पचने वाला संतुलित आहार और साफ़ पानी देना चाहिए I
o Dimercaprol/BAL (ब्रिटीष एन्टी लेवीसाईट) – ये छोटा जानवर में 2-4 मिली ग्राम / किग्रा तीन दिन तक 2 से 3 बार देते हैं।
o थिओक्टिक एसिड (Thioctic acid) – से 50 मिली ग्राम/किग्रा तीन बार 2-3 तीन दिन तक देते हैं। इसके साथ- साथ 20% घोल के साथ BAL को मिलाकर 3 मिली ग्राम/ किग्रा प्रत्येक दिन 4-4 घंटे पर देते हैं।
o d-Penicillamine – 10-50 मिली ग्राम / किग्रा एक दिन में 3-4 बार पिला देते हैं। यह दवा 2-3 दिन देते हैं।
o Sodium Thiosulphate (Na2S2O3) – घोड़े और गाय को 8-19 ग्राम और 10-20% घोल के साथ नस में देते हैं।
रोकथाम :
o जिस पानी में आर्सेनिक नहीं हो उस पानी को पिलाना चाहिए।
Rajeev
nice article
prem
Nice article