बदलते मौसम परिवेश में मसूर की खेती

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बदलते मौसम परिवेश में मसूर की खेती

Lentil Cultivation in  Changing Climate Scenario

संजय कुमार, आर.के.तिवारी एवं  रंजन कुमार

मसूर की खेती से प्राप्त दाने का प्रयोग प्रमुख रूप से दाल के लिए किया जाता है। मसूर की दाल अन्य दालों की अपेक्षा अधिक पौष्टिक होती है क्योंकि इसमें प्रोटीन की मात्रा प्रचुर मात्रा में होती है, साथ ही रोगियों के लिए अत्यंत लाभदायक होती है। पेट की बीमारियांे तथा अन्य बीमारियों के मरीजों को हल्का भोजन प्रदान करने के उद्वेश्य से इसकी दाल का प्रयोग सब्जियों में भी किया जाता है। मसूर के पौधे को हरे चारे के रूप में भी पशुओं को खिलाया जाता है तथा इसका भूसा भी बहुत पौष्टिक होता है। जो मवेशियों के खिलाने में प्रमुुख रूप से प्रयोग होता है।

मसूर की फसल

बिहार में मसूर रबी मौसम में लगायी जाती है। यह एक दलहनी फसल है जिसकी जड़ों में उपस्थित राईजोबियम द्वारा वायु की स्वतंत्र नाइट्रोजन का संस्थापन यौगिक नाइट्रोजन के रूप में मृदा मेें होता है। इससे भूमि की उर्वरा शक्ति मंे वृद्धि होती है। मसूर के लिए समशीतोष्ण जलवायु आवश्यकता होती है। पौधां की वनस्पतिक वृद्धि के समय अपेक्षाकृत कम तापक्रम आवश्यक होता है परन्तु फसल के पकने के समय उच्च तापक्रम अनुकूल होता है। इसकी खेती सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है। बलुआर दोमट तथा मध्यम दोमट मिट्टी इसकी खेती के लिए अधिक उत्तम होती है। मसूर की उन्नतशील प्रभेदों मंे के.एल.एस.-218, पी.एल.-639, पी.एच.-406, एच.यू.एल.-057 प्रमुख है, जो 115 दिन से 140 दिन के बीच तैयार हो जाती है। मूसर के बोने का उत्तम समय अक्टूबर माह के तृतीय सप्ताह से नवम्बर माह के द्वितीय सप्ताह बहुत ही अनुकूल माना गया है। बुआई के लिए सीड ड्रील या फर्टी सीड ड्रिल का प्रयोग करने से अधिक उपज प्राप्त होने की संभावना रहती है। मृदा में खाद-उर्वरक का प्रयोग मृदा परीक्षण करवाकर डालने से मिट्टी की उर्वरता बनी रहने के साथ-साथ पैसा भी कम खर्च होता है।

इसकी बीज दर 25-30 किलो ग्राम प्रति हे0 तथा पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 से.मी. एवं पौधे की दूरी 5 सेमी रखना चाहिए। इसमंे उर्वरक की मात्रा 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 45 किलोग्राम स्फूर, पोटाश-20 किलोग्राम तथा गंधक-20 किलोग्राम/हे0 है (100 किलो ग्राम डी.ए.पी., 33 किग्रा. म्यूरेट आॅफ पोटाश एवं 125 किग्रा. फाॅस्फोजिप्सम)। यदि मिट्टी में नमी की कमी आ रही है तो एक हल्की सिंचाई करना लाभप्रद रहता है। बुआई से पूर्व बीजों को ट्रोपिकोनाजोल 2 मिली लीटर प्रति किलोग्राम बीज की दर से करने के 72 धंटो के बाद राइजोबियम कल्चर से करना चाहिए।

यदि फसल को कीट कटवार्म, एफिड के द्वारा हानि हो रहा हो वैसी परिस्थति में क्लोरोपाइरीफाॅस (50 प्रतिशत इ.सी). 5 मिली लीटर प्रति लीटर पानी के दर से छिड़काव करना चाहिए। लाही का प्रकोप होने पर इमिडाक्लोरपिड (17.8 प्रतिशत) 0.5 मिली लीटर प्रति लीटर पानी के दर से छिड़काव करना चाहिए। फसल का छिमी बनते समय हल्की वर्षा हो जाए तो ऐसी परिस्थति में ट्रोपिकोनाजोल 1-1.5 मिली लीटर प्रति लीटर पानी मंे स्टीकर के साथ मिलाकर छिड़काव करने से रतुआ रोग पर नियंत्रण पाया जा सकता है। जब 80 प्रतिशत फलियाँ पक जाए तो कटाई करके एक सप्ताह तक फसल को खलिहान में सुखाकर थ्रेसर द्वारा दाना को निकाल लेते हैं। उपरोक्त विधि से इसकी खेती करने पर 18-22 क्विटल/हे. दाना व 30-32 क्विंटल/हे. भूसा की प्राप्ति हो जाती है।

 

Authors

  • संजय कुमार

    कृषि विज्ञान केन्द्र, बिरौली, समस्तीपुर डा. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर, बिहार - 848125

  • आर.के.तिवारी

    कृषि विज्ञान केन्द्र, बिरौली, समस्तीपुर डा. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर, बिहार - 848125

  • रंजन कुमार

    कृषि विज्ञान केन्द्र, बिरौली, समस्तीपुर डा. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर, बिहार - 848125

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